ये कहानी हर उस मध्यम व छोटे वर्ग किसान की है, जिनकी सारी इच्छायें सिर्फ सपनों की सपनों में रह जाती है ।
कहते हैं.. इन्सान सपना देखता है तो वो ज़रूर पूरा होता है। मगर किसान के सपने कभी पूरे नहीं होते बड़े अरमान और कड़ी मेहनत से फसल तैयार करता है और जब तैयार हुई फसल को बेचने मंडी जाता है। बड़ा खुश होते हुए जाता है,
बच्चों से कहता है.. आज तुम्हारे लिये नये कपड़े लाऊंगा फल और मिठाई भी लाऊंगा ।
पत्नी से कहता है.. तुम्हारी साड़ी भी कितनी पुरानी हो गई है फटने भी लगी है आज एक साड़ी नई लेता आऊंगा।
पत्नी : "अरे नही जी..! अभी तो ये भी ठीक है..!"
"आप तो अपने लिये जूते ही लेते आना कितने पुराने हो गये हैं और फट भी तो गये हैं..!"
वही किसान जब मंडी पहुँचता है, ये उसकी मजबूरी है की वो अपने माल की कीमत खुद नहीं लगा पाता, व्यापारी उसके माल की कीमत अपने हिसाब से तय करते हैं।
एक साबुन की टिकिया पर भी उसकी कीमत लिखी होती है। एक माचिस की डिब्बी पर भी उसकी कीमत लिखी होती है। लेकिन किसान अपने माल की कीमत खु़द नहीं कर पाता ।
खैर.. उसका माल तो जैसे तैसे बिक ही जाता है, लेकिन कीमत उसकी सोच अनुरूप नहीं मिल पाती। माल तौलाई के बाद जब पेमेन्ट मिलता है। वो सोचने लगता है की इसमें से दवाई वाले को देना है, खाद वाले को देना है, मज़दूर को देना है, अरे हाँ, बिजली का बिल भी तो जमा करना है।
और जब सारा हिसाब लगाने के बाद कुछ बचता ही नहीं या गलती से थोडा बहुत बच भी जाता है, तो वो मायूस हो घर लौट आता है बच्चे उसे बाहर ही इन्तज़ार करते हुए मिल जाते हैं।
"पिताजी..! पिताजी..!" कहते हुये उससे लिपट जाते हैं और पूछते हैं : "हमारे नये कपडे़ नहीं ला़ये क्या..?"
तब वो गरीब किसान उन बच्चों का पिता अपनी नज़रे इधर उधर करते हुवे अपने बच्चों को कहता हे "वो क्या है बेटा, कि बाजार में अच्छे कपडे़ मिले ही नहीं, दुकानदार कह रहा था इस बार दिवाली पर अच्छे कपडे़ आयेंगे तब ले लेंगे..!"
उसकी पत्नी समझ जाती है, फसल कम भाव में बिकी है, वो तुरंत अपने बच्चों को समझा कर बाहर भेज देती है।
गरीब किसान : अरे हाँ ! "तुम्हारी साड़ी भी नहीं ला पाया !"
पत्नी: "कोई बात नहीं जी, हम बाद में ले लेंगे लेकिन आप अपने जूते तो ले
आते !"
गरीब किसान : "अरे वो तो मैं भूल ही गया !"
पत्नी भी पति के साथ सालों से है पति का मायूस चेहरा और बात करने के तरीके से ही उसकी परेशानी समझ जाती है, लेकिन फिर भी पति को दिलासा देती है । और अपनी नम आँखों को साड़ी के पल्लू से छिपाती रसोई की ओर चली जाती है।
फिर अगले दिन सुबह पूरा परिवार एक नयी उम्मीद, एक नई आशा एक नये सपने के साथ नई फसल की तैयारी के लिये जुट जाता है l
ये कहानी हर छोटे और मध्यम किसान की ज़िन्दगी में हर साल दर साल दोहराई जाती है, हम ये नहीं कहते कि हर बार फसल के सही दाम नहीं मिलते, लेकिन जब भी कभी दाम बढ़ें, मीडिया वाले कैमरा ले के मंडी पहुच जाते हैं और खबर को दिन में दस दस बार दिखाते हैं l
कैमरे के सामने शहरी महिलायें हाथ में बास्केट ले कर अपना मेकअप ठीक करती मुस्कुराती हुई कहती हैं.. सब्जी के दाम बहुत बढ़ गये हैं हमारी रसोई का बजट ही बिगड़ गया। कभी आप भी अपने बास्केट को कोने में रख कर किसी खेत में जा कर उस गरीब किसान की हालत तो देखिये....
सब कुछ साफ़ हो जायेगा उसकी कितनी मेहनत के बाद हमको अनाज और साग सब्जियां मिलती है । वो किस तरह फसल को पानी देता है, १५ लीटर दवाई से भरी हुई टंकी पीठ पर लाद कर छिङ़काव करता है, २० किलो खाद की तगाड़ी उठा कर खेतों में घूम-घूम कर फसल को खाद देता है !
अघोषित बिजली कटौती के चलते रात-रात भर बिजली चालू होने के इन्तज़ार में जागता है, चिलचिलाती धूप में सिर का पसीना पैर तक बहाता है, ज़हरीले जीव जन्तुओं का डर होते भी खेतों में नंगे पैर घूमता है l
जिस दिन गांव की ये वास्तविकता आप अपनी आँखों से देख लेंगे, उस दिन आपके किचन में रखी हुई सब्ज़ी, प्याज़, गेहूँ, चावल, दाल, फल, मसाले, दूध सब सस्ते लगने लगेंगे।
कहते हैं.. इन्सान सपना देखता है तो वो ज़रूर पूरा होता है। मगर किसान के सपने कभी पूरे नहीं होते बड़े अरमान और कड़ी मेहनत से फसल तैयार करता है और जब तैयार हुई फसल को बेचने मंडी जाता है। बड़ा खुश होते हुए जाता है,
बच्चों से कहता है.. आज तुम्हारे लिये नये कपड़े लाऊंगा फल और मिठाई भी लाऊंगा ।
पत्नी से कहता है.. तुम्हारी साड़ी भी कितनी पुरानी हो गई है फटने भी लगी है आज एक साड़ी नई लेता आऊंगा।
पत्नी : "अरे नही जी..! अभी तो ये भी ठीक है..!"
"आप तो अपने लिये जूते ही लेते आना कितने पुराने हो गये हैं और फट भी तो गये हैं..!"
वही किसान जब मंडी पहुँचता है, ये उसकी मजबूरी है की वो अपने माल की कीमत खुद नहीं लगा पाता, व्यापारी उसके माल की कीमत अपने हिसाब से तय करते हैं।
एक साबुन की टिकिया पर भी उसकी कीमत लिखी होती है। एक माचिस की डिब्बी पर भी उसकी कीमत लिखी होती है। लेकिन किसान अपने माल की कीमत खु़द नहीं कर पाता ।
खैर.. उसका माल तो जैसे तैसे बिक ही जाता है, लेकिन कीमत उसकी सोच अनुरूप नहीं मिल पाती। माल तौलाई के बाद जब पेमेन्ट मिलता है। वो सोचने लगता है की इसमें से दवाई वाले को देना है, खाद वाले को देना है, मज़दूर को देना है, अरे हाँ, बिजली का बिल भी तो जमा करना है।
और जब सारा हिसाब लगाने के बाद कुछ बचता ही नहीं या गलती से थोडा बहुत बच भी जाता है, तो वो मायूस हो घर लौट आता है बच्चे उसे बाहर ही इन्तज़ार करते हुए मिल जाते हैं।
"पिताजी..! पिताजी..!" कहते हुये उससे लिपट जाते हैं और पूछते हैं : "हमारे नये कपडे़ नहीं ला़ये क्या..?"
तब वो गरीब किसान उन बच्चों का पिता अपनी नज़रे इधर उधर करते हुवे अपने बच्चों को कहता हे "वो क्या है बेटा, कि बाजार में अच्छे कपडे़ मिले ही नहीं, दुकानदार कह रहा था इस बार दिवाली पर अच्छे कपडे़ आयेंगे तब ले लेंगे..!"
उसकी पत्नी समझ जाती है, फसल कम भाव में बिकी है, वो तुरंत अपने बच्चों को समझा कर बाहर भेज देती है।
गरीब किसान : अरे हाँ ! "तुम्हारी साड़ी भी नहीं ला पाया !"
पत्नी: "कोई बात नहीं जी, हम बाद में ले लेंगे लेकिन आप अपने जूते तो ले
आते !"
गरीब किसान : "अरे वो तो मैं भूल ही गया !"
पत्नी भी पति के साथ सालों से है पति का मायूस चेहरा और बात करने के तरीके से ही उसकी परेशानी समझ जाती है, लेकिन फिर भी पति को दिलासा देती है । और अपनी नम आँखों को साड़ी के पल्लू से छिपाती रसोई की ओर चली जाती है।
फिर अगले दिन सुबह पूरा परिवार एक नयी उम्मीद, एक नई आशा एक नये सपने के साथ नई फसल की तैयारी के लिये जुट जाता है l
ये कहानी हर छोटे और मध्यम किसान की ज़िन्दगी में हर साल दर साल दोहराई जाती है, हम ये नहीं कहते कि हर बार फसल के सही दाम नहीं मिलते, लेकिन जब भी कभी दाम बढ़ें, मीडिया वाले कैमरा ले के मंडी पहुच जाते हैं और खबर को दिन में दस दस बार दिखाते हैं l
कैमरे के सामने शहरी महिलायें हाथ में बास्केट ले कर अपना मेकअप ठीक करती मुस्कुराती हुई कहती हैं.. सब्जी के दाम बहुत बढ़ गये हैं हमारी रसोई का बजट ही बिगड़ गया। कभी आप भी अपने बास्केट को कोने में रख कर किसी खेत में जा कर उस गरीब किसान की हालत तो देखिये....
सब कुछ साफ़ हो जायेगा उसकी कितनी मेहनत के बाद हमको अनाज और साग सब्जियां मिलती है । वो किस तरह फसल को पानी देता है, १५ लीटर दवाई से भरी हुई टंकी पीठ पर लाद कर छिङ़काव करता है, २० किलो खाद की तगाड़ी उठा कर खेतों में घूम-घूम कर फसल को खाद देता है !
अघोषित बिजली कटौती के चलते रात-रात भर बिजली चालू होने के इन्तज़ार में जागता है, चिलचिलाती धूप में सिर का पसीना पैर तक बहाता है, ज़हरीले जीव जन्तुओं का डर होते भी खेतों में नंगे पैर घूमता है l
जिस दिन गांव की ये वास्तविकता आप अपनी आँखों से देख लेंगे, उस दिन आपके किचन में रखी हुई सब्ज़ी, प्याज़, गेहूँ, चावल, दाल, फल, मसाले, दूध सब सस्ते लगने लगेंगे।
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