बिहार की सांस्कृतिक पहचान को गढ़ने में कई लोक संस्कृतियों का योगदान है| शायद ही कोई ऐसी लोक संस्कृति है, जिसके उद्भव का कोई प्रमाणिक तिथि स्पष्ट हो। प्राय: संस्कृति जन कल्याण की भावना से जन्मती और विस्तारित होती है| उसमें लोक की भागीदारी होती है आर वही परंपरा बन कर संस्कृति का रूप अख्तियार कर लेती है|
दाउदनगर जिउतिया लोक संस्कृति भी जन कल्याण की भावना से जन्मी और विस्तारित होते हुए परंपरा के रूप में रुढ होती गयी और यहाँ की लोक संस्कृति बन गयी| इसका जन्म कब हुआ? किसने किया? यह लोक साहित्य में दर्ज है किन्तु पूरा सच यही हो ऐसा नहीं है| कसेरा टोली चौक पर प्रस्तुत होने वाले एक लोक गीत में खा गया है- आश्विन अंधरिया दू रहे, संवत 1917 के साल रे जिउतिया, जिउतिया जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल रे जिउतिया, अरे धन भाग रे जिउतिया। तोहरा अहले जिउरा नेहाल, जे अहले मन हुलसइले, नौ दिन कइले बेहाल...| इससे यह स्पष्ट होता है कि हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल, रंगलाल ने इसको रोपा| संवत 1917 अर्थात 1860 ई.सन में| ठीक 157 साल पूर्व| क्या ऐसे किसी लोक संस्कृति का जन्म होता है?
श्रमण संस्कृति का आवाहक-दाउदनगर पुस्तक में इस मामले में जो शोध प्रकाशित हुआ है उसके अनुसार सबसे पहले इमली तल जिउतिया को लोक संस्कृति के रूप में मनाया जाता था| यहाँ की देखादेखी ही कसेरा टोली चौक पर उक्त तिथि को उक्त व्यक्तियों ने जिउतिया का आगाज किया जिसे रोपना कहा गया| इसी वजह से इसे नकल नाम दिया गया होगा| नकल जिस रूप में यहाँ प्रस्तुत होता है उसे ही स्वांग कला विभिन्न प्रदेशों में कहा जाता है| कसेरा समाज के लोग भी यह बताते हैं कि उन्होंने पहले इमलीतल से देखा था और तब ही उसका नक़ल कसेरा टोली चौक पर प्रस्तुत करना शुरू किया गया|
कैसे हुआ था आगाज?
जन कंठ से नि:सृत तथ्यों के अनुसार पूरा शहर तब प्लेग से आक्रांत था, हर घर में शोक व्याप्त था। तभी तत्कालीन समाज के अगुआ लोगों ने महारास्ट्र के गुणियों से संपर्क साधा और उन्हें यहाँ लाया| शहर के चारों कोण पर प्लेग देवी (जिसे बम्मा माई मंदिर भी कहा जाता है) की स्थापना की। यहां प्रस्तुत लावणी (अब विलुप्त) की उपस्थिति महाराष्ट्र से संबद्धों को प्रमाणित करती है| क्योंकि लावनी महाराष्ट्र की लोक कला का हिस्सा है।
महाराष्ट्र ही से क्यों बना संबंध?
तत्कालीन भारत में महाराष्ट्र में ही कपड़ा के मील थे| यहाँ के पटवा, तांती जैसी बुनकर जातियां वहां के मीलों में काम करती थीं| उन्होंने ही प्लेग की महामारी के वक्त वहां से ओझा गुनी को यहाँ लाया था| यहाँ के लोक साहित्य में भी इस सूत्र को देखा जा सकता है| यहाँ की बुनकर जातियां कपड़ा बुनने का काम करती थीं|
मंगलवार को खुली रहेंगी जेवर दूकान
मंगलवार को नहाय खाय होने और बुधवार को जिउतिया व्रत होने के कारण स्वर्नाभुशन की दुकानें मंगलवार को खुली रहेंगी| स्वर्णाभूषण व्यवसायी संघ के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद सर्राफ ने बताया कि यह निर्णय आम जनता के हित में लिया गया है| महत्वपूर्ण है कि शहर में सोना चांदी जेवर की दुकानें प्रत्येक मंगलवार को बंद रहती हैं| पर्व के कारण इस बार मंफ्गालावार को दुकाने खोली जायेंगी|
तरार में हुई जिउतिया पूजा
रविवार की रात तरार के काली मंदिर परिसर में भगवान जीमूतवाहन की पारंपरिक तरीके से पूजा अर्चना की गयी |मंत्रोचारण, गीत, संगीत, झुमर के साथ भगवान की प्राण प्रतिष्ठा की गयी| मुखिया सर्वोदय प्रकाश शर्मा, पंसस प्रतनिधि सतेन्द्र ठाकुर, विजय सिंह, ललन मुखिया, रितेश कुमार, सतीश चोधरी जितेन्द्र यादव, दयानन्द शर्मा, डॉ.सुबाष सिंह, संतोष शर्मा, प्रमोद, सोहन उपस्थित रहे।
लेखक उपेन्द्र कश्यप
No comments:
Post a Comment